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ठगिनी और व्यापारी भाग-2

          भाग- 2

अगले दिन यशवर्धन श्रीदत को अपने साथ यात्रा पर ले जाने
के लिए उसके घर गया. उसने रास्ते में अपने साथ खाने-पीने का सामना एक बड़े से थैले में रख लिया. इसके अलावा उसके पिताजी ने उसे व्यापार करने के लिए चार स्वर्ण मुद्राएं भी दे दी ताकि यशवर्धन दूसरे नगर में जब व्यापार करे तो उसे किसी भी तरह की दिक्कत का सामना ना करना पड़े. कुछ ही पल में यशवर्धन श्रीदत के घर पहुँच गया. उसने उसे बाहर प्रांगण से ही आवाज दी.- श्रीदत तैयार हो गए हो तो चले. ज्यादा देर करेंगे तो दोपहर हो जाएगी..
श्रीदत ने अपने घर के कच्चे मकान के अंदर से ही आवाज देते हुए कहा- हाँ! बस तैयार हूँ लेकिन चलने से पहले मेरी तीन शर्तें है.
यश- शर्तें? कैसी शर्तें? तुम कहना क्या चाहते हो दोस्त.
श्रीदत अपने कच्चे मकान से बाहर आते हुए बोला- हाँ दोस्ती शर्तें. मेरी पहली शर्त यह है की तुम यात्रा के दौरान किसी भी तरह की बातचीत नहीं करोगे.
यश- क्या! ये क्या बात हुई श्रीदत? बिना बातचीत के तो सफ़र तय करना मुश्किल हो जाएगा. यश ने आश्चर्यचकित होकर श्रीदत से कहा. उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था की श्रीदत ये बात क्यों बोल रहा था? कुछ ही देर में श्रीदत ने उससे कहा- देख दोस्त मैंने तुम्हे बोला न मुझे सफ़र में बिलकुल भी बोलने की आदत नहीं है. अब अगर ये शर्त मानते हो तो दूसरी शर्त बोलूं.
यश- हाँ! ठीक है बोलो.. क्या है तुम्हारी दूसरी शर्त?
श्रीदत- मेरी दूसरी शर्त यह है की बाहर जब भी तुम काम करोगे या व्यापार करोगे तो घर आने के बाद खाना तुम बनाओगे ना की मैं..
यश- क्या! पर मुझे तो खाना बनाना नहीं आता है.
श्रीदत ने मुस्कराते हुए कहा- तो भ्राताश्री सीख लेना.. बताओ ये शर्त मंजूर है या नहीं.
यश ने अधूरे मन से कहा- ठीक है मंजूर है.
श्रीदत ने मुस्कुराते हुआ कहा- तो चलो अब मेरी तीसरी शर्त यह है की तुम्हे मेरी सारी बातों को मानना होगा.
यश- मतलब दोस्त?
श्रीदत- मतलब यह की मैं तुम्हे जो काम बोलूं तुम्हे वो सारे करने होंगे. तुम्हे मेरी हर आज्ञा को मानना होगा.
यश- नहीं! मैं ये नहीं कर सकता. तुम्हारा क्या विश्वास तुम मुझसे कुछ भी करवाने लग जाओ.
उसने जैसे ही हिचकिचाते हुए इस बात को श्रीदत से कहा तो श्रीदत की पत्नी की हंसी छूट गई. जैसे ही श्रीदत को आभाष हुआ की यह गलत समझ रहा तो उसने मुस्कुराते हुए कहा- अरे! मुर्ख मेरा वो मतलब नहीं है. मेरे कहने का मतलब यह है की तुम्हे मेरी हर बात को अपना बड़ा भाई मानकर माननी होगी. कभी-कभी मेरे पाँव भी दबाने होंगे.
यश- ये मैं नहीं कर सकता. मैं किसी के भी पाँव नहीं दबा सकता.
श्रीदत- अच्छा नहीं दबा सकते.
यश- हाँ! नहीं दबा सकता.
श्रीदत- अगर नहीं दबा सकते तो फिर अकेले ही जाओ. मैं तो यही अपने पांडित्य कर्म से काम चला लूँगा. तुम अकेले ही जाओ फिर.
यश- नहीं.. नहीं. अरे नहीं.. ठीक है मुझे तुम्हारी तीनो शर्त मंजूर है.
श्रीदत- अगर मंजूर है तो चलते हैं फिर. फिर उसने अपने पत्नी को अलविदा कहा. अपनी माँ के पाँव छुए और घर से यशवर्धन के साथ यात्रा पर निकल गया.
दोनों दोस्त बिना एक दुसरे से बात किए हुए चल रहे थे. व्यापारी पुत्र यशवर्धन शारीरिक रूप से थोडा मोटा होने के कारण उसे चलने में दिक्कत आ रही थी. लेकिन ब्राह्मण पुत्र पतला भी था और उसे पैदल चलने की आदत भी थी. वे कुछ ही दूर चले थे की अचानक यशवर्धन ने श्रीदत को पीछे से आवाज देते हुए कहा- श्रीदत, थोडा तो आराम कर लो दोस्त. मैं अब थक चुका हूँ..
श्रीदत- नहीं दोस्त. हम रुक नहीं सकते. थोड़ी देर बाद वैसे भी दोपहर होने वाली है तो फिर बाद में ही रुकेंगे, अभी रुकने का कोई औचित्य नहीं है.
यश- देखो दोस्त मैं बहुत थक चुका हूँ.. अब आराम कर लेतें है थोडा सा.
श्रीदत- यश मैंने तुम्हे क्या कहा था घर पर की जो मैं कहूँगा तुम्हे वही करना है. अगर नहीं किया तो मैं अभी वापस चला जाऊँगा.
यश- ठीक है दोस्त जो तुम्हारी आज्ञा. यशवर्धन अब मनमसोस कर रह जाता है. उसके लिए चलना अब दुष्कर हो चुका था लेकिन बेचारा करे भी तो क्या करे?
इधर ब्राह्मण पुत्र श्रीदत को अपनी पत्नी की याद सताने लगी. लेकिन उसे कैसे भी करके एक साल यशवर्धन के साथ रहना जरुरी था क्योंकि एक साल यशवर्धन के साथ रहने का मतलब यह था की वह अपना बाकी का जीवन आराम से बिना काम किए ही बिता सकता था. क्योंकि उसकी जरूरतें सीमित थीं. इधर जब श्रीदत नहीं रुकता है तो यशवर्धन उसे आवाज देते हुए कहता है- दोस्त अगर तुम रुक नहीं सकते तो मुझे कोई कहानी तो सुना सकते हो ना?
श्रीदत- नहीं. मैंने तुम्हे अपनी पहली शर्त भी तो यही रखी थी.
यश- देखो दोस्त मुझसे ऐसे नहीं चला जा रहा. तुम कुछ सुनाओ..
श्रीदत- मैंने तुम्हे क्या कहा? सुनाई नहीं देता क्या, की मैं कोई कहानी नहीं सुनाऊंगा तुम्हे?
यश- अच्छा. सुनो अगर मैं तुम्हारे व्यापार में हिस्सा बीस प्रतिशत की जगह पच्चीस प्रतिशत कर दूं तो फिर तो सुनाओगे ना..
श्रीदत- नहीं सुनाऊंगा.
यश- ये क्या बात हुई भला?
श्रीदत- बस यही बात हुई. तुम्हे अगर चलना है तो ऐसे ही चलो.
यश- ऐसे मुझसे नहीं चला जाता. चल कोई कहानी सुना दे. मुझे भी चलने में आसानी हो जाएगी.
श्रीदत- बोला ना नहीं सुनाऊंगा.
यश के समझ से बाहर था की उसका दोस्त भला इतना कठोर मिजाज का कैसे हो सकता है? लेकिन अचानक उसके मन में एक ख्याल आया जैसे ही उसने अपनी पतलून में हाथ दिया. उसने मन ही मन मुस्कुराते हुए कहा.- अच्छा दोस्त मैं तुम्हे एक सोने का सिक्का दूंगा अगर तुमने मेरा पूरे रास्ते मनोरंजन किया तो..
श्रीदत आश्चर्य से- क्या कहा? तुम्हे मैं कोई भांड लगता हूँ क्या? जो तुम्हारा मनोरंजन करूँगा.
यश- देखो दोस्त मेरा मतलब ऐसा कुछ भी नहीं था.
श्रीदत- तो फिर क्या मतलब था तुम्हारा? चल अब चुप-चाप चलो. वरना मैं वापस चला जाऊँगा.
यश- अरे! नहीं दोस्त ऐसा बिलकुल मत करना. जो तुम्हारी आज्ञा. फिर वह लगातार बिना बोले श्रीदत का अनुसरण करता है. श्रीदत को अचानक अपनी पत्नी की फिर से याद सताने लग जाती है. वह असहज सा हो जाता है. इधर यशवर्धन को चलने में परेशानी हो रही थी. उसने फिर से अधूरे मन से कहा- श्रीदत कुछ कहानी सुना दो दोस्त अब मुझसे नहीं चला जा रहा है.
यश के दुखी मन से बोलने पर श्रीदत ने मस्कुराते हुए कहा- ठीक है सुना दूंगा. लेकिन मुझे आज कोई कहानी नहीं आ रही है. मैं बस एक छोटा सा कथन बोल सकता हूँ. लेकिन वो कथन तुम्हारे एक सोने के सिक्के से भी महंगा है.
यश- क्या! तुम पागल हो गए हो क्या? इस एक सोने के सिक्के की कीमत जानते हो क्या तुम? तुम्हारा परिवार आराम से एक साल के लिए भरपेट खाना खा सकता है. बात कहनी हो तो कहो अगर पूरे सफ़र में तुमने मुझे कहानियां सुनाई तो मैं तुम्हे एक सोने का सिक्का दे सकता हूँ वरना नहीं..
श्रीदत- अच्छा ये बात है. लेकिन मेरा एक कथन तुम्हारे एक सोने के सिक्के के बराबर है. अगर सुनना हो तो पहले सोने का सिक्का दो और फिर सुनो वरना ऐसे ही मेरा अनुसरण करो..
यश- देखो दोस्त तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? सुना दो ना..
श्रीदत- मैंने तुम्हे कहा ना. सुना दूंगा. लेकिन पहले सोने का सिक्का दो.
श्रीदत का ऐसा कहते ही यश कुछ देर के लिए शांत हो जाता है. उसे पता चल जाता है की ब्राह्मण पुत्र बिना सिक्के के आज कोई कथन या कहानी नहीं सुनाएगा. इस लिए सिक्का तो देना ही होगा. उसने अधूरे मन से अपनी पतलून में से सोने का सिक्का निकाला और श्रीदत को पकडाते हुए कहा- ये लो अब कुछ सुनाओ मुझे..
श्रीदत ने मुस्कुराते हुए सिक्का ग्रहण कर लिया और उससे कहा- देखो दोस्त एक से भले दो होते हैं. तुम कभी भी अकेला महसूस करो तो किसी दूसरे साथी की तलाश करना. यानी वो साथी कोई भी हो सकता है इन्सान भी हो सकता है. जानवर भी हो सकता है या फिर कोई निर्जीव वस्तु जैसे कोई छड़ी. क्योंकि एक से भले दो होते हैं. बस मेरा कथन पूरा हुआ चलो आगे बढ़ते हैं..
श्रीदत के इतना कहते ही यशवर्धन को मन ही मन गुस्सा आ रहा था की उसने एक इतने महंगे सोने के सिक्के के बदले में इतनी छोटी सी बात कही. लेकिन वह क्या कर सकता था. उसका सोने का सिक्का तो अब ब्राह्मण पुत्र के हाथ में जा चुका था. व्यापारी पुत्र अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहा था. इधर जैसे ही सोने का सिक्का ब्राह्मण पुत्र के हाथ में आया उसके मन में लालच आ गया..
क्रमश....

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11 Comments

Dilawar Singh

14-Feb-2024 07:03 PM

बहतरीन प्रस्तुति बहुत खूब 👌👌

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Fiza Tanvi

20-Nov-2021 01:08 PM

Good

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Miss Lipsa

30-Aug-2021 03:16 PM

Wahhh wahhh

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